
प्रदीप चित्रांशी
. भारतीय धर्मों के उपासना स्थल को जिस तरह से मंदिर कहा जाता है,उसी प्रकार जिस जगह पर साहित्य साधक साहित्य-साधना में लिप्त होकर सरस्वती की कृपा से साहित्य का सर्जन करता है,वह स्थान साहित्यानुरागियों के लिए दर्शनीय एवं पूज्यनीय हो जाता है क्योंकि वहाँ पर गंगा की निर्मल धारा की तरह गीत,ग़ज़ल, कविता,कहानी एवं उपन्यास की धाराएँ समाज की पीड़ा को अपने अंतस में समाए,समाज को सही दिशा दिखाते हुए,अनवरत बहती रहती है।इसी साहित्यिक तीर्थ का दर्शन कर युवा साहित्यकार शब्दों की गंगा का प्रसाद ग्रहणकर, भावो के सागर में नहाता है। हर कलमकार की तरह मैं भी इन साहित्यिक तीर्थ पर जाकर उस साहित्य का दर्शन करना चाहता था जिसने भक्तिकाल के समय सूर, कबीर, तुलसी से परिचय करवाया और आज़ादी के समय हर भारतीयों की हिम्मत और आवाज़ बनी। आज भी वह समाज को सही राह पर चलने को प्रेरित करती रहती है।इस बात में कितनी गहराई है इसकी अनुभूति उन्हीं साहित्यकारों को होती है जो उनके जन्मस्थान पर जाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व एक साहित्यिक कार्यक्रम में मुझे भी बिहार प्रान्त के बेगूसराय जिला में जाने का सुअवसर मिला। इसी जिला में गंगा के किनारे सिमरिया नामक एक गाँव है जहाँ राष्ट्रीय भाव से जनमानस की चेतना को नई स्फूर्ति प्रदान करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी का जन्म हुआ था। बेगूसराय में साहित्यिक पत्रिका ‘समय सुरभि अनंत ‘ के संपादक नरेंद्र कुमार सिंह के घर पर मेरा ठहरना हुआ।दो दिन तक चलने वाले साहित्यिक कार्यक्रम से फुरसत पाने के बाद तीसरे दिन सिमरिया चलने का कार्यक्रम तय हुआ।
तीसरे दिन हम लोगों की सवारी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की जन्मस्थली सिमरिया गाँव की ओर चल पड़ी। उनके नाम के अनुरूप सिमरिया गाँव की भी बात निराली है। यहाँ प्रवेश करते ही यहाँ की हवाएँ, दरो-दीवार और हरे-भरे वृक्षों से मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे दिनकर जी की कविता का पाठ कर रहे हैं। थोड़ी देर में नरेंद्र भाई की स्कूटी एक पुराने मकान के सामने रुकी। पत्रकार प्रवीन प्रियदर्शी और दिनकर जी के छोटे भाई से मेरी मुलाकात हुई। उन्होंने ही बताया कि दिनकर जी का यह पुराना मकान है।हमलोग दिनकर जी पर चर्चा कर ही रहे थे,उसी समय तेरह- चौदह वर्ष का बच्चा चाय लेकर आया। हमलोगों को चाय पकड़ाते हुए बोला,
‘आपलोगों को मैं दिनकर जी की कविता सुनाता हूँ, यह कहकर उसने चार-पाँच कविताएँ सुना दी।’ कविता सुनते-सुनते हमलोग दिनकर जी के नए घर पर आ गए। नए घर में उनके परिजनों ने उनकी प्रत्येक चीजों को बहुत करीने से सजाकर रखा है,यह देखकर बहुत अच्छा लगा। घर के अन्दर ही एक कुँआ था,जिसका पानी दिनकर जी पिया करते थे।दिनकर के भाई ने पूरे घर को बहुत ही करीने से दिखाने के बाद, हम लोगों को गुड़ खिलाकर पानी पिलाया। पानी पिलाने के बाद उन्होंने कहा कि दिनकर जी देश,समाज और
साहित्य के प्रति समर्पित होने के साथ ही साथ परिवार के प्रत्येक सदस्यों का ख़्याल रखते थे। उन्होंने भाइयों की बेटियों की भी शादियाँ अपने ही बच्चों की तरह पढ़े-लिखे और संस्कारयुक्त परिवारों में करके, पारिवारिक रिश्तों के मिठास की थ्योरी क्या होती है, बिना कहे सबको समझा गए।दिनकर जी के भाई से जाने की अनुमति लेने के बाद हमलोग गाँव घूमने निकल पड़े। गाँव घूमते समय वहाँ के लोगों से दुआ-सलाम करते हुए दिनकर जी पर चर्चा करने का सुअवसर ही नहीं मिला बल्कि आज भी उनके दिल में दिनकर जीते हैं। उन्हें उनपर गर्व है कि वे उनके गाँव के हैं। इसका जीता-जागता उदाहरण है कि गाँव के प्रत्येक घर के मुख्य द्वार की दीवार पर दिनकर की रचना का होना। यहाँ के लोगों को दिनकर की कविता ही नहीं याद है बल्कि बाबा,दादा,एवं पिता के साथ दिनकर के बिताए गए पल, उनके संस्मरणों में आज भी जीवित हैं।
यहाँ से हमलोग दिनकर पुस्तकालय और दिनकर सभागार गए। पुस्तकालय को मैंने अपनी पुस्तक भेट की तथा पुस्तकालय का अवलोकन कर स्वयं को दिनकर के साहित्य-संसार से जोड़ने का प्रयास करने लगा।यहाँ पर उनकी किताबों का विशाल भंडार देखने को मिला जिसमें रेणुका,हुंकार, रसवन्ती, सामधेनी, कुरुक्षेत्र, उर्वशी और रश्मिरथी आदिक का अवलोकन करने का अवसर मिला।
रेणुका: इस कृति में अतीत के गौरव के प्रति कवि का आदर-भाव तथा वर्तमान की नीरसता से दुखी मन की वेदना का परिचय मिलता है।
हुंकार: इस काव्य रचना में वर्तमान
दशा के प्रति आक्रोश व्यक्त हुआ है।
रसवन्ती: इस रचना में सौन्दर्य का काव्यमय वर्णन हुआ है।
सामधेनी: इसमें सामाजिक चेतना ,स्वदेश प्रेम तथा विश्व-वेदना सम्बन्धी कविताएँ संकलित महाभारत के शान्ति-पर्व के कथानक को आधार बनाकर वर्तमान परिस्थितियों का चित्रण किया गया है।
उर्वशी,रश्मिरथी : इन दोनों काव्य-कृतियों में विचार तत्व की प्रधानता है।
दिनकर जी की गद्य रचनाओं में उनका विराट ग्रंथ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के साथ उनके द्वारा लिखे गए कई समीक्षात्मक ग्रंथ भी पुस्तकालय में देखने को मिले। तत्पश्चात हमलोग दिनकर सभागार गए। जहाँ पर नरेन्द्र भाई की ओर से काव्य-गोष्ठी आयोजित हुई, जिसमें स्थानीय लोगों ने भी भाग लिया। स्थानीय लोगों ने दिनकर पर ही चर्चा की और उन्हीं के गीतों को काव्य गोष्ठी में सुनाया। उनका अभिवादन और दिनकर जी के प्रति आदर सम्मान देखकर, लोक संस्कृति पर डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी की बात याद आ गई, जिसका सार है- ज्ञान, अनुभव, श्रुति और परम्परा से चलती है।ज्ञान का आधार पोथी नहीं होती।
शाम सात बजे नरेन्द्र जी के साथ सिमरिया भ्रमण से लौटते समय ऐसा लग रहा था कि दिनकर जी की धरती ने मेरे दिल को इतना प्रभावित किया कि शरीर शहर की ओर जा रहा है लेकिन दिल वापस जाने को तैयार नहीं क्योंकि मानवीय सम्बन्धों के विज्ञान को दिनकर जी की दृष्टि से समझना चाहता था जिसमें मानवीय सम्बन्धों में आपसी प्रेम भावना के साथ एक दूसरे के प्रति दया भावना निहित हो जो प्रेम से सबकी इज्ज़त करके सबके साथ रिश्ता बनाकर सदैव उर्जित करता रहे, वही मानव समाज में महान,ज्ञानी और विद्वान कहलाने का हकदार होता है।